يس

 

Ya-Sin

 

Ya Sin

1 - Ya-Sin (Ya Sin) - 001

يسٓ
या, सीन।

2 - Ya-Sin (Ya Sin) - 002

وَٱلۡقُرۡءَانِ ٱلۡحَكِيمِ
क़सम है हिकमत वाले क़ुरआन की!

3 - Ya-Sin (Ya Sin) - 003

إِنَّكَ لَمِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ
निःसंदेह आप रसूलों में से हैं।

4 - Ya-Sin (Ya Sin) - 004

عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ
सीधे रास्ते पर हैं।

5 - Ya-Sin (Ya Sin) - 005

تَنزِيلَ ٱلۡعَزِيزِ ٱلرَّحِيمِ
(यह) प्रभुत्वशाली, अति दयावान् (अल्लाह) का उतारा हुआ है।

6 - Ya-Sin (Ya Sin) - 006

لِتُنذِرَ قَوۡمٗا مَّآ أُنذِرَ ءَابَآؤُهُمۡ فَهُمۡ غَٰفِلُونَ
ताकि आप उस जाति[1] को डराएँ, जिनके बााप-दादा नहीं डराए गए थे। इसलिए वे ग़ाफ़िल हैं।
1. अर्थात् मक्का वासियों को, जिनके पास इसमाईल (अलैहिस्सलाम) के पश्चात् कोई नबी नहीं आया।

7 - Ya-Sin (Ya Sin) - 007

لَقَدۡ حَقَّ ٱلۡقَوۡلُ عَلَىٰٓ أَكۡثَرِهِمۡ فَهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ
उनमें से अधिकतर लोगों पर बात[2] सिद्ध हो चुकी है। अतः वे ईमान नहीं लाएँगे।
2. अर्थात अल्लाह की यह बात कि ''मैं जिन्नों तथा मनुष्यों से नरक को भर दूँगा।'' (देखिए : सूरतुस सजदा, आयत :13)

8 - Ya-Sin (Ya Sin) - 008

إِنَّا جَعَلۡنَا فِيٓ أَعۡنَٰقِهِمۡ أَغۡلَٰلٗا فَهِيَ إِلَى ٱلۡأَذۡقَانِ فَهُم مُّقۡمَحُونَ
तथा हमने उनकी गर्दनों में तौक़ डाल दिए हैं, जो ठुड्डियों से लगे हैं।[3] इसलिए वे सिर ऊपर किए हुए हैं।
3. इससे अभिप्राय उनका कुफ़्र पर दुराग्रह तथा ईमान न लाना है।

9 - Ya-Sin (Ya Sin) - 009

وَجَعَلۡنَا مِنۢ بَيۡنِ أَيۡدِيهِمۡ سَدّٗا وَمِنۡ خَلۡفِهِمۡ سَدّٗا فَأَغۡشَيۡنَٰهُمۡ فَهُمۡ لَا يُبۡصِرُونَ
तथा हमने उनके आगे एक आड़ बना दी है और उनके पीछे एक आड़। फिर हमने उनको ढाँक दिया है। अतः वे[4] देख ही नहीं पाते।
4. अर्थात सत्य की ओर ध्यान नहीं दे रहे हैं, और न उससे लाभान्वित हो रहे हैं।

10 - Ya-Sin (Ya Sin) - 010

وَسَوَآءٌ عَلَيۡهِمۡ ءَأَنذَرۡتَهُمۡ أَمۡ لَمۡ تُنذِرۡهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ
और उनके लिए बराबर है, चाहे आप उन्हें डराएँ या न डराएँ, वे ईमान नहीं लाएँगे।

11 - Ya-Sin (Ya Sin) - 011

إِنَّمَا تُنذِرُ مَنِ ٱتَّبَعَ ٱلذِّكۡرَ وَخَشِيَ ٱلرَّحۡمَٰنَ بِٱلۡغَيۡبِۖ فَبَشِّرۡهُ بِمَغۡفِرَةٖ وَأَجۡرٖ كَرِيمٍ
आप तो केवल उस व्यक्ति को डरा सकते हैं, जो इस ज़िक्र (क़ुरआन) का पालन करे, तथा बिन देखे रहमान (अत्यंत दयावान् अल्लाह) से डरे। तो आप उसे क्षमा तथा सम्मानजनक बदले की शुभ सूचना दे दें।

12 - Ya-Sin (Ya Sin) - 012

إِنَّا نَحۡنُ نُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَنَكۡتُبُ مَا قَدَّمُواْ وَءَاثَٰرَهُمۡۚ وَكُلَّ شَيۡءٍ أَحۡصَيۡنَٰهُ فِيٓ إِمَامٖ مُّبِينٖ
निःसंदेह हम ही मुर्दों को जीवित करेंगे। तथा हम उनके कर्मों और उनके पद्चिह्नों[5] को लिख रहे हैं। तथा प्रत्येक वस्तु को हमने स्पष्ट पुस्तक में दर्ज कर रखा है।
5. अर्थात पुण्य अथवा पाप करने के लिए आते-जाते जो उन के पद्चिह्न धरती पर बने हैं, उन्हें भी लिख रखा है। इसी में उनके अच्छे-बुरे वे कर्म भी आते हैं, जो उन्होंने किए हैं और जिनका उनके पश्चात् अनुसरण किया जा रहा है।

13 - Ya-Sin (Ya Sin) - 013

وَٱضۡرِبۡ لَهُم مَّثَلًا أَصۡحَٰبَ ٱلۡقَرۡيَةِ إِذۡ جَآءَهَا ٱلۡمُرۡسَلُونَ
तथा आप उन्हें[6] बस्ती वालों का एक उदाहरण दीजिए। जब वहाँ (अल्लाह के) भेजे हुए रसूल आए।
6. अर्थात् अपने आमंत्रण के विरोधियों को।

14 - Ya-Sin (Ya Sin) - 014

إِذۡ أَرۡسَلۡنَآ إِلَيۡهِمُ ٱثۡنَيۡنِ فَكَذَّبُوهُمَا فَعَزَّزۡنَا بِثَالِثٖ فَقَالُوٓاْ إِنَّآ إِلَيۡكُم مُّرۡسَلُونَ
जब हमने उनकी ओर दो (रसूलों को) भेजा। तो उन्होंने उन दोनों को झुठला दिया। तब हमने तीसरे के द्वारा शक्ति पहुँचाई। तो तीनों ने कहा : निःसंदेह हम तुम्हारी ओर भेजे गए हैं।

15 - Ya-Sin (Ya Sin) - 015

قَالُواْ مَآ أَنتُمۡ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُنَا وَمَآ أَنزَلَ ٱلرَّحۡمَٰنُ مِن شَيۡءٍ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا تَكۡذِبُونَ
उन्होंने कहा : तुम सब तो हमारे ही जैसे मनुष्य[7] हो, और अत्यंत दयावान् (अल्लाह) ने कुछ भी नहीं उतारा है। तुम तो बस झूठ बोल रहे हो।
7. प्राचीन युग से मुश्रिकों तथा कुपथों ने अल्लाह के रसूलों को इसी कारण नहीं माना कि एक मनुष्य अल्लाह का रसूल कैसे हो सकता है? यह तो खाता-पीता तथा बाज़ारों में चलता-फिरता है। (देखिए : सूरतुल-फ़ुर्क़ान, आयत : 7-20, सूरतुल-अंबिया, आयत : 3,7,8, सूरतुल-मूमिनून, आयत : 24, 33-34, सूरत इबराहीम, आयत : 10-11, सूरतुल-इसरा, आयत : 94-95, और सूरतुत्-तग़ाबुन, आयत : 6)

16 - Ya-Sin (Ya Sin) - 016

قَالُواْ رَبُّنَا يَعۡلَمُ إِنَّآ إِلَيۡكُمۡ لَمُرۡسَلُونَ
उन रसूलों ने कहा : हमारा पालनहार जानता है कि हम निश्चय ही तुम्हारी ओर रसूल बनाकर भेजे गए हैं।

17 - Ya-Sin (Ya Sin) - 017

وَمَا عَلَيۡنَآ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ
तथा हमारा दायित्व खुले तौर पर संदेश पहुँचा देने के सिवा और कुछ नहीं है।

18 - Ya-Sin (Ya Sin) - 018

قَالُوٓاْ إِنَّا تَطَيَّرۡنَا بِكُمۡۖ لَئِن لَّمۡ تَنتَهُواْ لَنَرۡجُمَنَّكُمۡ وَلَيَمَسَّنَّكُم مِّنَّا عَذَابٌ أَلِيمٞ
उन लोगों ने कहा : हम तुम्हें अशुभ (मनहूस) समझते हैं। यदि तुम बाज़ नहीं आए, तो हम तुम्हें निश्चित रूप से पथराव करके मार डालेंगे और तुम्हें अवश्य ही हमारी ओर से दुःखदायी यातना पहुँचेगी।

19 - Ya-Sin (Ya Sin) - 019

قَالُواْ طَـٰٓئِرُكُم مَّعَكُمۡ أَئِن ذُكِّرۡتُمۚ بَلۡ أَنتُمۡ قَوۡمٞ مُّسۡرِفُونَ
उन लोगों ने कहा : तुम्हारा अपशकुन तुम्हारे ही साथ है। क्या इसलिए कि तुम्हें उपदेश दिया गया? बल्कि तुम उल्लंघनकारी लोग हो।

20 - Ya-Sin (Ya Sin) - 020

وَجَآءَ مِنۡ أَقۡصَا ٱلۡمَدِينَةِ رَجُلٞ يَسۡعَىٰ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱتَّبِعُواْ ٱلۡمُرۡسَلِينَ
तथा नगर के अंतिम किनारे से एक व्यक्ति दौड़ता हुआ आया। उसने कहा : ऐ मेरी जाति के लोगो! रसूलों का कहा मानो।

21 - Ya-Sin (Ya Sin) - 021

ٱتَّبِعُواْ مَن لَّا يَسۡـَٔلُكُمۡ أَجۡرٗا وَهُم مُّهۡتَدُونَ
तुम उनका अनुसरण करो, जो तुमसे कोई पारिश्रमिक (बदला) नहीं माँगते तथा वे सीधे मार्ग पर हैं।

22 - Ya-Sin (Ya Sin) - 022

وَمَالِيَ لَآ أَعۡبُدُ ٱلَّذِي فَطَرَنِي وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ
तथा मुझे क्या हुआ है कि मैं उसकी इबादत न करूँ, जिसने मुझे पैदा किया है और तुम (सब) उसी की ओर लौटाए जाओगे?[8]
8. अर्थात मैं तो उसी की इबादत करता हूँ और करता रहूँगा। और उसी की इबादत करनी भी चाहिए। क्योंकि वही इबादत किए जाने के योग्य है। उसके अतिरिक्त कोई इबादत के योग्य हो ही नहीं सकता।

23 - Ya-Sin (Ya Sin) - 023

ءَأَتَّخِذُ مِن دُونِهِۦٓ ءَالِهَةً إِن يُرِدۡنِ ٱلرَّحۡمَٰنُ بِضُرّٖ لَّا تُغۡنِ عَنِّي شَفَٰعَتُهُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَا يُنقِذُونِ
क्या मैं उसे छोड़कर दूसरे पूज्य बना लूँ? यदि रहमान (अत्यंत दयावान् अल्लाह) मुझे कोई हानि पहुँचाना चाहे, तो उनकी सिफ़ारिश मुझे कुछ लाभ नहीं पहुँचा सकेगी और न वे मुझे बचा सकेंगे।

24 - Ya-Sin (Ya Sin) - 024

إِنِّيٓ إِذٗا لَّفِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ
निःसंदेह मैं उस समय खुली गुमराही में हूँगा।

25 - Ya-Sin (Ya Sin) - 025

إِنِّيٓ ءَامَنتُ بِرَبِّكُمۡ فَٱسۡمَعُونِ
निःसंदेह मैं तुम्हारे पालनहार पर ईमान ले आया। अतः मेरी बात सुनो।

26 - Ya-Sin (Ya Sin) - 026

قِيلَ ٱدۡخُلِ ٱلۡجَنَّةَۖ قَالَ يَٰلَيۡتَ قَوۡمِي يَعۡلَمُونَ
(उससे) कहा गया : जन्नत में प्रवेश कर जा। उसने कहा : काश मेरी जाति भी जान लेती!

27 - Ya-Sin (Ya Sin) - 027

بِمَا غَفَرَ لِي رَبِّي وَجَعَلَنِي مِنَ ٱلۡمُكۡرَمِينَ
कि मेरे पालनहार ने मुझे क्षमा[9] कर दिया और मुझे सम्मानित लोगों में शामिल कर दिया।
9. अर्थात एकेश्वरवाद तथा अल्लाह की आज्ञा के पालन पर धैर्य के कारण।

28 - Ya-Sin (Ya Sin) - 028

۞وَمَآ أَنزَلۡنَا عَلَىٰ قَوۡمِهِۦ مِنۢ بَعۡدِهِۦ مِن جُندٖ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ وَمَا كُنَّا مُنزِلِينَ
तथा हमने उसके पश्चात् उसकी जाति पर आकाश से कोई सेना नहीं उतारी और न हम उतारने वाले थे।[10]
10. अर्थात यातना देने के लिए हम सेनाएँ नहीं उतारते।

29 - Ya-Sin (Ya Sin) - 029

إِن كَانَتۡ إِلَّا صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ فَإِذَا هُمۡ خَٰمِدُونَ
वह तो मात्र एक तेज़ आवाज़ (चिंघाड़) थी। फिर एकाएक वे बुझे हुए थे।[11]
11. अर्थात एक चीख़ ने उनको बुझी हुई राख के समान कर दिया। इससे ज्ञात होता है कि मनुष्य कितना निर्बल है।

30 - Ya-Sin (Ya Sin) - 030

يَٰحَسۡرَةً عَلَى ٱلۡعِبَادِۚ مَا يَأۡتِيهِم مِّن رَّسُولٍ إِلَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ
हाय अफसोस है[12] बंदों पर! उनके पास जो भी रसूल आता, वे उसका उपहास किया करते थे।
12. अर्थात प्रलय के दिन रसूलों का उपहास बंदों के लिए अफसोस का कारण होगा।

31 - Ya-Sin (Ya Sin) - 031

أَلَمۡ يَرَوۡاْ كَمۡ أَهۡلَكۡنَا قَبۡلَهُم مِّنَ ٱلۡقُرُونِ أَنَّهُمۡ إِلَيۡهِمۡ لَا يَرۡجِعُونَ
क्या उन्होंने नहीं देखा कि हमने उनसे पहले कितने ही समुदायों को विनष्ट कर दिया कि वे उनकी ओर लौटकर नहीं आएँगे।

32 - Ya-Sin (Ya Sin) - 032

وَإِن كُلّٞ لَّمَّا جَمِيعٞ لَّدَيۡنَا مُحۡضَرُونَ
तथा वे जितने भी हैं सबके सब हमारे सामने उपस्थित किए जाएँगे।[13]
13. प्रलय के दिन ह़िसाब तथा बदले के लिए।

33 - Ya-Sin (Ya Sin) - 033

وَءَايَةٞ لَّهُمُ ٱلۡأَرۡضُ ٱلۡمَيۡتَةُ أَحۡيَيۡنَٰهَا وَأَخۡرَجۡنَا مِنۡهَا حَبّٗا فَمِنۡهُ يَأۡكُلُونَ
तथा उनके[14] लिए एक बड़ी निशानी मृत भूमि है। हमने उसे जीवित किया और उससे अन्न निकाला। तो वे उसी में से खाते हैं।
14. यहाँ एकेश्वरवाद तथा आख़िरत (परलोक) के विषय का वर्णन किया जा रहा है। जो नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) तथा मक्का के काफ़िरों के बीच विवाद का कारण था।

34 - Ya-Sin (Ya Sin) - 034

وَجَعَلۡنَا فِيهَا جَنَّـٰتٖ مِّن نَّخِيلٖ وَأَعۡنَٰبٖ وَفَجَّرۡنَا فِيهَا مِنَ ٱلۡعُيُونِ
तथा हमने उसमें खजूरों और अंगूरों के कई बाग बनाए और उनमें कई जल स्रोत प्रवाहित कर दिए।

35 - Ya-Sin (Ya Sin) - 035

لِيَأۡكُلُواْ مِن ثَمَرِهِۦ وَمَا عَمِلَتۡهُ أَيۡدِيهِمۡۚ أَفَلَا يَشۡكُرُونَ
ताकि वे उसके फल खाएँ, हालाँकि उसे उनके हाथों ने नहीं बनाया है। तो क्या वे आभार प्रकट नहीं करते?

36 - Ya-Sin (Ya Sin) - 036

سُبۡحَٰنَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلۡأَزۡوَٰجَ كُلَّهَا مِمَّا تُنۢبِتُ ٱلۡأَرۡضُ وَمِنۡ أَنفُسِهِمۡ وَمِمَّا لَا يَعۡلَمُونَ
पवित्र है वह अस्तित्व जिसने सभी जोड़े पैदा किए, उन चीज़ों के भी जिन्हें धरती उगाती है, और स्वयं उन (मनुष्यों) के अपने भी, और उनके भी जिन्हें वे नहीं जानते।

37 - Ya-Sin (Ya Sin) - 037

وَءَايَةٞ لَّهُمُ ٱلَّيۡلُ نَسۡلَخُ مِنۡهُ ٱلنَّهَارَ فَإِذَا هُم مُّظۡلِمُونَ
तथा एक निशानी उनके लिए रात है। जिससे हम दिन को खींच लेते हैं, तो एकाएक वे अंधेरे में हो जाते हैं।

38 - Ya-Sin (Ya Sin) - 038

وَٱلشَّمۡسُ تَجۡرِي لِمُسۡتَقَرّٖ لَّهَاۚ ذَٰلِكَ تَقۡدِيرُ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡعَلِيمِ
तथा सूर्य अपने नियत ठिकाने की ओर चला जा रहा है। यह प्रभुत्वशाली, सब कुछ जानने वाले (अल्लाह) का निर्धारित किया हुआ है।

39 - Ya-Sin (Ya Sin) - 039

وَٱلۡقَمَرَ قَدَّرۡنَٰهُ مَنَازِلَ حَتَّىٰ عَادَ كَٱلۡعُرۡجُونِ ٱلۡقَدِيمِ
तथा चाँद की हमने मंज़िलें निर्धारित कर दी हैं। यहाँ तक कि वह फिर खजूर की पुरानी सूखी टेढ़ी टहनी के समान हो जाता है।

40 - Ya-Sin (Ya Sin) - 040

لَا ٱلشَّمۡسُ يَنۢبَغِي لَهَآ أَن تُدۡرِكَ ٱلۡقَمَرَ وَلَا ٱلَّيۡلُ سَابِقُ ٱلنَّهَارِۚ وَكُلّٞ فِي فَلَكٖ يَسۡبَحُونَ
न तो सूर्य ही से हो सकता है कि चाँद को जा पकड़े और न रात ही दिन से पहले आने वाली है। और सब एक-एक कक्षा में तैर रहे हैं।

41 - Ya-Sin (Ya Sin) - 041

وَءَايَةٞ لَّهُمۡ أَنَّا حَمَلۡنَا ذُرِّيَّتَهُمۡ فِي ٱلۡفُلۡكِ ٱلۡمَشۡحُونِ
तथा उनके लिए एक निशानी (यह भी) है कि हमने उनकी नस्ल को भरी हुई नाव में सवार किया।

42 - Ya-Sin (Ya Sin) - 042

وَخَلَقۡنَا لَهُم مِّن مِّثۡلِهِۦ مَا يَرۡكَبُونَ
तथा हमने उनके लिए उस (नाव) जैसी कई और चीज़ें बनाईं, जिनपर वे सवार होते हैं।

43 - Ya-Sin (Ya Sin) - 043

وَإِن نَّشَأۡ نُغۡرِقۡهُمۡ فَلَا صَرِيخَ لَهُمۡ وَلَا هُمۡ يُنقَذُونَ
और यदि हम चाहें, तो उन्हें डुबो दें। फिर न कोई उनकी फ़र्याद को पहुँचने वाला हो और न वे बचाए जाएँ।

44 - Ya-Sin (Ya Sin) - 044

إِلَّا رَحۡمَةٗ مِّنَّا وَمَتَٰعًا إِلَىٰ حِينٖ
परंतु हमारी ओर से दया और एक समय तक लाभ पहुँचाने की वजह से।

45 - Ya-Sin (Ya Sin) - 045

وَإِذَا قِيلَ لَهُمُ ٱتَّقُواْ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيكُمۡ وَمَا خَلۡفَكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ
और[15] जब उनसे कहा जाता है कि उस (यातना) से डरो, जो तुम्हारे आगे है और जो तुम्हारे पीछे है, ताकि तुमपर दया की जाए।
15. आयत संख्या 33 से यहाँ तक एकेश्वरवाद तथा परलोक के प्रमाणों, जिन्हें सभी लोग देखते तथा सुनते हैं, और जो सभी इस संसार की व्यवस्था तथा जीवन के संसाधनों से संबंधित हैं, उनका वर्णन करने के पश्चात् अब बहुदेववादियों तथा काफ़िरों की दशा और उनके आचरण का वर्णन किया जा रहा है।

46 - Ya-Sin (Ya Sin) - 046

وَمَا تَأۡتِيهِم مِّنۡ ءَايَةٖ مِّنۡ ءَايَٰتِ رَبِّهِمۡ إِلَّا كَانُواْ عَنۡهَا مُعۡرِضِينَ
और उनके पास उनके पालनहार की निशानियों में से कोई निशानी नहीं आती परंतु वे उससे मुँह फेरने वाले होते हैं।

47 - Ya-Sin (Ya Sin) - 047

وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ أَنفِقُواْ مِمَّا رَزَقَكُمُ ٱللَّهُ قَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَنُطۡعِمُ مَن لَّوۡ يَشَآءُ ٱللَّهُ أَطۡعَمَهُۥٓ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ
तथा जब उनसे कहा जाता है कि उस धन में से खर्च करो, जो अल्लाह ने तुम्हें प्रदान किया है, तो काफ़िर लोग ईमान वालों से कहते हैं : क्या हम उसे खाना खिलाएँ, जिसे यदि अल्लाह चाहता, तो खिला देता? तुम तो खुली गुमराही में हो।

48 - Ya-Sin (Ya Sin) - 048

وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡوَعۡدُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ
तथा वे कहते हैं : यह (क़ियामत का) वादा कब पूरा होगा, यदि तुम सच्चे हो?

49 - Ya-Sin (Ya Sin) - 049

مَا يَنظُرُونَ إِلَّا صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ تَأۡخُذُهُمۡ وَهُمۡ يَخِصِّمُونَ
वे केवल एक चिंघाड़[16] की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जो उन्हें आ पकड़ेगी, जबकि वे (आपस में) झगड़ रहे होंगे।
16. इससे अभिप्राय प्रथम सूर है जिसमें फूँकते ही अल्लाह के सिवा सब मर जाएँगे।

50 - Ya-Sin (Ya Sin) - 050

فَلَا يَسۡتَطِيعُونَ تَوۡصِيَةٗ وَلَآ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِمۡ يَرۡجِعُونَ
फिर वे न कोई वसीयत कर सकेंगे और न अपने परिजनों की ओर वापस आ सकेंगे।

51 - Ya-Sin (Ya Sin) - 051

وَنُفِخَ فِي ٱلصُّورِ فَإِذَا هُم مِّنَ ٱلۡأَجۡدَاثِ إِلَىٰ رَبِّهِمۡ يَنسِلُونَ
तथा सूर (नरसिंघा) में फूँक[17] मारी जाएगी, तो एकाएक वे क़ब्रों से (निकलकर) अपने पालनहार की ओर दौड़ रहे होंगे।
17. इससे अभिप्राय दूसरी बार सूर फूँकना है जिससे सभी जीवित होकर अपनी समाधियों से निकल पड़ेंगे।

52 - Ya-Sin (Ya Sin) - 052

قَالُواْ يَٰوَيۡلَنَا مَنۢ بَعَثَنَا مِن مَّرۡقَدِنَاۜۗ هَٰذَا مَا وَعَدَ ٱلرَّحۡمَٰنُ وَصَدَقَ ٱلۡمُرۡسَلُونَ
वे कहेंगे : हाय हमारा विनाश! किसने हमें हमारी क़ब्रों से उठा दिया? यही है जो रहमान ने वादा किया था और रसूलों ने सच कहा था।

53 - Ya-Sin (Ya Sin) - 053

إِن كَانَتۡ إِلَّا صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ فَإِذَا هُمۡ جَمِيعٞ لَّدَيۡنَا مُحۡضَرُونَ
वह तो बस एक चिंघाड़ होगी, तो अचानक वे सब हमारे पास उपस्थित किए हुए होंगे।

54 - Ya-Sin (Ya Sin) - 054

فَٱلۡيَوۡمَ لَا تُظۡلَمُ نَفۡسٞ شَيۡـٔٗا وَلَا تُجۡزَوۡنَ إِلَّا مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ
तो आज किसी प्राणी पर कुछ भी अत्याचार नहीं किया जाएगा और तुम्हें केवल उसी का बदला दिया जाएगा, जो तुम किया करते थे।

55 - Ya-Sin (Ya Sin) - 055

إِنَّ أَصۡحَٰبَ ٱلۡجَنَّةِ ٱلۡيَوۡمَ فِي شُغُلٖ فَٰكِهُونَ
निःसंदेह जन्नती लोग आज (नेमतों) का आनंद लेने में व्यस्त हैं।

56 - Ya-Sin (Ya Sin) - 056

هُمۡ وَأَزۡوَٰجُهُمۡ فِي ظِلَٰلٍ عَلَى ٱلۡأَرَآئِكِ مُتَّكِـُٔونَ
वे तथा उनकी पत्नियाँ छायों में मस्नदों पर तकिया लगाए हुए हैं।

57 - Ya-Sin (Ya Sin) - 057

لَهُمۡ فِيهَا فَٰكِهَةٞ وَلَهُم مَّا يَدَّعُونَ
उनके लिए उसमें बहुत सारा फल है तथा उनके लिए वह कुछ है, जो वे माँग करेंगे।

58 - Ya-Sin (Ya Sin) - 058

سَلَٰمٞ قَوۡلٗا مِّن رَّبّٖ رَّحِيمٖ
सलाम हो। उस पालनहार की ओर से कहा जाएगा, जो अत्यंत दयावान् है।

59 - Ya-Sin (Ya Sin) - 059

وَٱمۡتَٰزُواْ ٱلۡيَوۡمَ أَيُّهَا ٱلۡمُجۡرِمُونَ
तथा ऐ अपराधियो! आज तुम अलग[18] हो जाओ।
18. अर्थात ईमान वालों से।

60 - Ya-Sin (Ya Sin) - 060

۞أَلَمۡ أَعۡهَدۡ إِلَيۡكُمۡ يَٰبَنِيٓ ءَادَمَ أَن لَّا تَعۡبُدُواْ ٱلشَّيۡطَٰنَۖ إِنَّهُۥ لَكُمۡ عَدُوّٞ مُّبِينٞ
ऐ आदम की संतान! क्या मैंने तुम्हें ताकीद[19] नहीं की थी कि शैतान की उपासना न करना? निश्चय वह तुम्हारा खुला शत्रु है।
19. भाष्य के लिए देखिए : सूरतुल-आराफ़, आयत : 172.

61 - Ya-Sin (Ya Sin) - 061

وَأَنِ ٱعۡبُدُونِيۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ
तथा यह कि तुम मेरी ही इबादत करो। यही सीधा मार्ग है।

62 - Ya-Sin (Ya Sin) - 062

وَلَقَدۡ أَضَلَّ مِنكُمۡ جِبِلّٗا كَثِيرًاۖ أَفَلَمۡ تَكُونُواْ تَعۡقِلُونَ
तथा उसने तुममें से बहुत-से लोगों को पथभ्रष्ट कर दिया। तो क्या तुम समझते नहीं थे?

63 - Ya-Sin (Ya Sin) - 063

هَٰذِهِۦ جَهَنَّمُ ٱلَّتِي كُنتُمۡ تُوعَدُونَ
यही वह जहन्नम है, जिसका तुमसे वादा किया जाता था।

64 - Ya-Sin (Ya Sin) - 064

ٱصۡلَوۡهَا ٱلۡيَوۡمَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡفُرُونَ
आज उसमें प्रवेश कर जाओ, उस कुफ़्र के बदले जो तुम किया करते थे।

65 - Ya-Sin (Ya Sin) - 065

ٱلۡيَوۡمَ نَخۡتِمُ عَلَىٰٓ أَفۡوَٰهِهِمۡ وَتُكَلِّمُنَآ أَيۡدِيهِمۡ وَتَشۡهَدُ أَرۡجُلُهُم بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ
आज हम उनके मुँहों पर मुहर लगा देंगे और उनके हाथ हमसे बात करेंगे तथा उनके पैर उन कर्मों की गवाही देंगे, जो वे किया करते थे।[20]
20. यह उस समय होगा जब बहुदेववादी शपथ लेंगे कि वे शिर्क नहीं करते थे। देखिए : सूरतुल-अन्आम, आयत : 23.

66 - Ya-Sin (Ya Sin) - 066

وَلَوۡ نَشَآءُ لَطَمَسۡنَا عَلَىٰٓ أَعۡيُنِهِمۡ فَٱسۡتَبَقُواْ ٱلصِّرَٰطَ فَأَنَّىٰ يُبۡصِرُونَ
और यदि हम चाहें, तो निश्चय उनकी आँखें मिटा दें। फिर वे रास्ते की ओर दौड़ें, तो कैसे देखेंगे?

67 - Ya-Sin (Ya Sin) - 067

وَلَوۡ نَشَآءُ لَمَسَخۡنَٰهُمۡ عَلَىٰ مَكَانَتِهِمۡ فَمَا ٱسۡتَطَٰعُواْ مُضِيّٗا وَلَا يَرۡجِعُونَ
और यदि हम चाहें, तो उनके स्थान ही पर उनके रूप को परिवर्तित कर दें, फिर वे न आगे जा सकें और न पीछे लौट सकें।

68 - Ya-Sin (Ya Sin) - 068

وَمَن نُّعَمِّرۡهُ نُنَكِّسۡهُ فِي ٱلۡخَلۡقِۚ أَفَلَا يَعۡقِلُونَ
तथा जिसे हम दीर्घायु प्रदान करते हैं, उसे उसकी संरचना में उल्टा[21] फेर देते हैं। तो क्या ये नहीं समझते?
21. अर्थात वह शिशु की तरह़ निर्बल तथा निर्बोध हो जाता है।

69 - Ya-Sin (Ya Sin) - 069

وَمَا عَلَّمۡنَٰهُ ٱلشِّعۡرَ وَمَا يَنۢبَغِي لَهُۥٓۚ إِنۡ هُوَ إِلَّا ذِكۡرٞ وَقُرۡءَانٞ مُّبِينٞ
और हमने न उन्हें शे'र (काव्य)[22] सिखाया है और न वह उनके योग्य है। वह तो सर्वथा उपदेश तथा स्पष्ट क़ुरआन के सिवा कुछ नहीं।
22. मक्का के मूर्तिपूजक नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के संबंध में कई प्रकार की बातें कहते थे जिनमें यह बात भी थी कि आप कवि हैं। अल्लाह ने इस आयत में इसी का खंडन किया है।

70 - Ya-Sin (Ya Sin) - 070

لِّيُنذِرَ مَن كَانَ حَيّٗا وَيَحِقَّ ٱلۡقَوۡلُ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ
ताकि वह उसे डराए, जो जीवित हो[23] तथा काफ़िरों पर (यातना की) बात सिद्ध हो जाए।
23. जीवित होने का अर्थ अंतरात्मा का जीवित होना और सत्य को समझने के योग्य होना है।

71 - Ya-Sin (Ya Sin) - 071

أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّا خَلَقۡنَا لَهُم مِّمَّا عَمِلَتۡ أَيۡدِينَآ أَنۡعَٰمٗا فَهُمۡ لَهَا مَٰلِكُونَ
क्या उन्होंने नहीं देखा कि हमने अपने हाथों से बनाई हुई चीज़ों में से उनके लिए चौपाए पैदा किए, तो वे उनके मालिक हैं?

72 - Ya-Sin (Ya Sin) - 072

وَذَلَّلۡنَٰهَا لَهُمۡ فَمِنۡهَا رَكُوبُهُمۡ وَمِنۡهَا يَأۡكُلُونَ
तथा हमने उन्हें उनके वश में कर दिया, तो उनमें से कुछ उनकी सवारी हैं और उनमें से कुछ को वे खाते हैं।

73 - Ya-Sin (Ya Sin) - 073

وَلَهُمۡ فِيهَا مَنَٰفِعُ وَمَشَارِبُۚ أَفَلَا يَشۡكُرُونَ
तथा उनके लिए उन (चौपायों) में कई लाभ और पीने की चीज़ें हैं। तो क्या (फिर भी) वे आभार प्रकट नहीं करते?

74 - Ya-Sin (Ya Sin) - 074

وَٱتَّخَذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ ءَالِهَةٗ لَّعَلَّهُمۡ يُنصَرُونَ
और उन्होंने अल्लाह के सिवा कई पूज्य बना लिए, ताकि उनकी सहायता की जाए।

75 - Ya-Sin (Ya Sin) - 075

لَا يَسۡتَطِيعُونَ نَصۡرَهُمۡ وَهُمۡ لَهُمۡ جُندٞ مُّحۡضَرُونَ
वे उनकी सहायता करने का सामर्थ्य नहीं रखते, तथा ये उनकी सेना हैं, जो उपस्थित[24] किए हुए हैं।
24. अर्थात वे अपने पूज्यों सहित नरक में झोंक दिए जाएँगे।

76 - Ya-Sin (Ya Sin) - 076

فَلَا يَحۡزُنكَ قَوۡلُهُمۡۘ إِنَّا نَعۡلَمُ مَا يُسِرُّونَ وَمَا يُعۡلِنُونَ
अतः उनकी बात आपको शोकग्रस्त न करे। निःसंदेह हम जानते हैं जो वे छिपाते हैं और जो वे प्रकट करते हैं।

77 - Ya-Sin (Ya Sin) - 077

أَوَلَمۡ يَرَ ٱلۡإِنسَٰنُ أَنَّا خَلَقۡنَٰهُ مِن نُّطۡفَةٖ فَإِذَا هُوَ خَصِيمٞ مُّبِينٞ
क्या मनुष्य ने नहीं देखा कि हमने उसे वीर्य से पैदा किया? फिर अचानक वह खुला झगड़ालू बन बैठा।

78 - Ya-Sin (Ya Sin) - 078

وَضَرَبَ لَنَا مَثَلٗا وَنَسِيَ خَلۡقَهُۥۖ قَالَ مَن يُحۡيِ ٱلۡعِظَٰمَ وَهِيَ رَمِيمٞ
और उसने हमारे लिए एक उदाहरण प्रस्तुत किया, और अपनी रचना को भूल गया। उसने कहा : इन अस्थियों को कौन जीवित करेगा, जबकि वे जीर्ण-शीर्ण हो चुकी होंगी?

79 - Ya-Sin (Ya Sin) - 079

قُلۡ يُحۡيِيهَا ٱلَّذِيٓ أَنشَأَهَآ أَوَّلَ مَرَّةٖۖ وَهُوَ بِكُلِّ خَلۡقٍ عَلِيمٌ
आप कह दें : उन्हें वही (अल्लाह) जीवित करेगा, जिसने उन्हें प्रथम बार पैदा किया और वह प्रत्येक उत्पत्ति को भली-भाँति जानने वाला है।

80 - Ya-Sin (Ya Sin) - 080

ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُم مِّنَ ٱلشَّجَرِ ٱلۡأَخۡضَرِ نَارٗا فَإِذَآ أَنتُم مِّنۡهُ تُوقِدُونَ
वह जिसने तुम्हारे लिए हरे वृक्ष से आग पैदा कर दी, फिर तुम उससे आग[25] सुलगाते हो।
25. भावार्थ यह है कि जो अल्लाह जल से हरे वृक्ष पैदा करता है फिर उसे सुखा देता है जिससे तुम आग सुलगाते हो, तो क्या वह इसी प्रकार तुम्हारे मरने-गलने के पश्चात् फिर तुम्हें जीवित नहीं कर सकता?

81 - Ya-Sin (Ya Sin) - 081

أَوَلَيۡسَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِقَٰدِرٍ عَلَىٰٓ أَن يَخۡلُقَ مِثۡلَهُمۚ بَلَىٰ وَهُوَ ٱلۡخَلَّـٰقُ ٱلۡعَلِيمُ
तथा क्या वह (अल्लाह) जिसने आकाशों और धरती को पैदा किया, इस बात का सामर्थ्य नहीं रखता कि उन जैसे और पैदा कर दे? क्यों नहीं, और वही सब कुछ पैदा करने वाला, सब कुछ जानने वाला है?

82 - Ya-Sin (Ya Sin) - 082

إِنَّمَآ أَمۡرُهُۥٓ إِذَآ أَرَادَ شَيۡـًٔا أَن يَقُولَ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ
उसका आदेश, जब वह किसी चीज़ का इरादा करता है, तो केवल यह होता है कि उससे कहता है "हो जा", तो वह हो जाती है।

83 - Ya-Sin (Ya Sin) - 083

فَسُبۡحَٰنَ ٱلَّذِي بِيَدِهِۦ مَلَكُوتُ كُلِّ شَيۡءٖ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ
अतः पवित्र है वह (अल्लाह), जिसके हाथ में प्रत्येक चीज़ का राज्य (पूर्ण अधिकार) है और तुम सब उसी की ओर लौटाए[26] जाओगे।
26. प्रलय के दिन अपने कर्मों का बदला प्राप्त करने के लिए।

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